कविताओं के संदर्भ मे एक कविता
कविताएँ ज्यादा कहती है्
वे अर्थ और जीवन के बीच
नदी सी बहती है्।
कविताएँ ज्यादा कहती है।
वे राग रँग
सच और प्रसंग की धार बनाती है
आनंद और उत्सर्ग सहित
जन जन से आती है
वे पीड़ाओं की एक
सदी सी सहती हैं ।
कविताएँ ज्यादा कहती हैं।
कमलेश कुमार दीवान
२५ मार्च १९०६
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सोमवार, 30 मार्च 2009
शुक्रवार, 27 मार्च 2009
नव संवत् शुभ..फलदायक हों
॥ ॐ श्री गणेशाय नमः ॥
भारतवर्ष के नव संवत् विक्रम संवत् २०६६
गुड़ी पड़वा चैत्र शुक्ल प्रथम के पावन पर्व पर
शुभमंगलकामनाएँ है। देशवाशियों को यह गीत
सादर समर्पित है......
नव संवत् शुभ..फलदायक हों
नव संवत् शुभ..फलदायक हों।
ग्रह नछत्र
काल गणनाएँ
मानवता को सफल बनाएँ
नव मत..सम्मति बरदायक हो।
नव संवत् शुभ...फलदायक हो।
जीवन के संघर्ष
सरल हों
आपस के संबंध
सहज हों
नया भोर यह,नया दौर है
विपत्ति निबारक सुखदायक हो।
नव संवत् शुभ...फलदायक हो ।
नव संवत् शुभ...फलदायक हो ।
कमलेश कुमार दीवान
चैत्र शुक्ल एकम् संवत् २०६६
भारतवर्ष के नव संवत् विक्रम संवत् २०६६
गुड़ी पड़वा चैत्र शुक्ल प्रथम के पावन पर्व पर
शुभमंगलकामनाएँ है। देशवाशियों को यह गीत
सादर समर्पित है......
नव संवत् शुभ..फलदायक हों
नव संवत् शुभ..फलदायक हों।
ग्रह नछत्र
काल गणनाएँ
मानवता को सफल बनाएँ
नव मत..सम्मति बरदायक हो।
नव संवत् शुभ...फलदायक हो।
जीवन के संघर्ष
सरल हों
आपस के संबंध
सहज हों
नया भोर यह,नया दौर है
विपत्ति निबारक सुखदायक हो।
नव संवत् शुभ...फलदायक हो ।
नव संवत् शुभ...फलदायक हो ।
कमलेश कुमार दीवान
चैत्र शुक्ल एकम् संवत् २०६६
गुरुवार, 26 मार्च 2009
भारतीय नव वर्ष पर शुभकामनाएँ
भारतीय नव वर्ष पर शुभकामनाएँ
विक्रम संवत २०६६
नया वर्ष शुभ हो ।
नया वर्ष हो, नये हर्ष हों
हो नई खुशी, नवोत्कर्ष हों ।
नया वर्ष शुभ हो ।
नई सुबह हो,नयी शाम हो
नई मजिंलें,नए मुकाम हो
नए लक्छय हों ,नए हौसले
हो नई दिशा, नए काफिले
नए चाँद तारे ..ओ आफताव
नई दृष्टियाँ ,नयी हो किताब
नये मिजाज हो, नये ख्वाब हों
नई हो नदी... नयी नाव हो
नये वास्ते नए हैं सफर
नये अर्थ जिनकी तलाश हो
नई भोर की सौगात हो .
नया वर्ष शुभ हो ।
कमलेश कुमार दीवान
विक्रम संवत २०६६
नया वर्ष शुभ हो ।
नया वर्ष हो, नये हर्ष हों
हो नई खुशी, नवोत्कर्ष हों ।
नया वर्ष शुभ हो ।
नई सुबह हो,नयी शाम हो
नई मजिंलें,नए मुकाम हो
नए लक्छय हों ,नए हौसले
हो नई दिशा, नए काफिले
नए चाँद तारे ..ओ आफताव
नई दृष्टियाँ ,नयी हो किताब
नये मिजाज हो, नये ख्वाब हों
नई हो नदी... नयी नाव हो
नये वास्ते नए हैं सफर
नये अर्थ जिनकी तलाश हो
नई भोर की सौगात हो .
नया वर्ष शुभ हो ।
कमलेश कुमार दीवान
मंगलवार, 24 मार्च 2009
यह सब संसार विकल है .....भजन गीत
सुनिये
http://in.geocities.com/kamleshkumardiwan/yahsavsansarbhajhan.wav
यह सब संसार विकल है .....भजन गीत
यह सब संसार विकल है।
गिरते आँसू कोइ देख न ले
वह छिपा रहा केवल है।
कोई सुख मे डूबा जाता है
कोई दुख मे तैर नही् पाता
कोई पानी पानी नदियों सा
कोई हिम सा ठहरा रह जाता
कोई शांत और अविचल है।
यह सब संसार विकल है।
कमलेश कुमार दीवान
मन कछु सुमरत नाहीं ....भजन गीत
suniye
मन कछु सुमरत नाहीं ....भजन गीत
हे हरि,मन कछु सुमरत नाहीं।
हे हरि ,मन कछु सुमरत नाहीं।
का करिहें जग जपत बुढ़ाया
मोह माया का फेर बढ़ाया
जे असार संसार भँवर है
कहीं किनारा नाहीं।
हे हरि ,मन कछु सुमरत नाहीं।
पी॔त पाण पण पेम पराए
राग देव्श अपनों से
बहुरि भेद नहिं मिते रे मनुज के
साँच कहुँ सपने से
करनीं के फल किते मिलत है
पावो जुगत भिडाई
हे हरि, मन कछु सुमरअत नाहीं ।
कमलेश कुमार दीवान
नोटः यह भजन गीत ईश्वर की आराघना मे लिखा है, उन्हे सादर समर्पित है।
मन कछु सुमरत नाहीं ....भजन गीत
हे हरि,मन कछु सुमरत नाहीं।
हे हरि ,मन कछु सुमरत नाहीं।
का करिहें जग जपत बुढ़ाया
मोह माया का फेर बढ़ाया
जे असार संसार भँवर है
कहीं किनारा नाहीं।
हे हरि ,मन कछु सुमरत नाहीं।
पी॔त पाण पण पेम पराए
राग देव्श अपनों से
बहुरि भेद नहिं मिते रे मनुज के
साँच कहुँ सपने से
करनीं के फल किते मिलत है
पावो जुगत भिडाई
हे हरि, मन कछु सुमरअत नाहीं ।
कमलेश कुमार दीवान
नोटः यह भजन गीत ईश्वर की आराघना मे लिखा है, उन्हे सादर समर्पित है।
शुक्रवार, 20 मार्च 2009
उगलियाँ ही उगलियौं मे गढ़ रही हैं
उगलियाँ ही उगलियौं मे गढ़ रही हैं
ऐसा क्यों?
जो लताएँ आज तक
चढ़ती थी ऊचे पेड पर
हर हरा कर टूटते
गहरे कुएँ में गिर रहीं हैं
ऐसा क्यों?
मान्यताएँ फिर हुई बूढ़ी
अन्ध विश्वासों ने बनाएँ घर
अब न मौसम बन बरसतें हैं
स्याह बादल से भयावह डर
एड़ियों पर चोटियों से जो टपकती थी कभी
बूँद श्रम की नम नयन से झर रही है
ऐसा क्यों ?
लोग कहते हैं विवशता से
दोष सारे हैं व्वस्था के
नहीं बदला रूख हवाओं ने
गर्म मौसम की अवस्था से
फिर न दोहराओ सवालो को
आग हो जाते हैं रखवारे
पीढ़ियाँ ही पीढ़ियों से चिड रही हैं
ऐसा क्यों ?
विग्य बनते हैं बहुत सारे
व्यापते हैं जब भी अंधियारे
इस लड़ाई का नहीं मकसद
हो गये हैं आज सब न्यारे
कौम, वर्ग, विकल्प और विभीषकाएँ क्या
हर नये सिध्दांत की बाते वही है
खोखली दिक् चेतना से हर शिराएँ थक गई है
ऐसा क्यों ?
कमलेश कुमार दीवान
६ जनवरी १९८८
ऐसा क्यों?
जो लताएँ आज तक
चढ़ती थी ऊचे पेड पर
हर हरा कर टूटते
गहरे कुएँ में गिर रहीं हैं
ऐसा क्यों?
मान्यताएँ फिर हुई बूढ़ी
अन्ध विश्वासों ने बनाएँ घर
अब न मौसम बन बरसतें हैं
स्याह बादल से भयावह डर
एड़ियों पर चोटियों से जो टपकती थी कभी
बूँद श्रम की नम नयन से झर रही है
ऐसा क्यों ?
लोग कहते हैं विवशता से
दोष सारे हैं व्वस्था के
नहीं बदला रूख हवाओं ने
गर्म मौसम की अवस्था से
फिर न दोहराओ सवालो को
आग हो जाते हैं रखवारे
पीढ़ियाँ ही पीढ़ियों से चिड रही हैं
ऐसा क्यों ?
विग्य बनते हैं बहुत सारे
व्यापते हैं जब भी अंधियारे
इस लड़ाई का नहीं मकसद
हो गये हैं आज सब न्यारे
कौम, वर्ग, विकल्प और विभीषकाएँ क्या
हर नये सिध्दांत की बाते वही है
खोखली दिक् चेतना से हर शिराएँ थक गई है
ऐसा क्यों ?
कमलेश कुमार दीवान
६ जनवरी १९८८
साथ चलो, पर दोडो मत
पाश्चात्य संगीत के लिये एक गीत
suniye
साथ चलो, पर दोडो मत
साथ चलो, पर दोडो मत
गिर जाओगे ।,
हाथ से हाथ,छोडो मत
गिर जाओगे।
रेत घरों के ढ़हने से
आसूँ तो बहते हैं
सुख..दुःख ,हँसी ..खुशी दो पहलू
एक साथ सब सहते हैं।
लोग कहानी उनकी कहते
जो उनको भी भाते हैं
दूर रहा न जाये उनसे
जो सपनों में आते हैं।
चलती हुई हवाओं के तुम
साथ बहो पर मोडो मत।
साथ चलो ,पर दोडो मत
गिर जाओगे,
हाथ से हाथ,छोडो मत
गिर जाओगे।
कमलेश कुमार दीवान
१०अक्तुबर १९९६
नोटः यह गीत युवाओं के लिये लिखा है ,एक समूची पीढ़ी को आदर के साथ समर्पित है।
suniye
साथ चलो, पर दोडो मत
साथ चलो, पर दोडो मत
गिर जाओगे ।,
हाथ से हाथ,छोडो मत
गिर जाओगे।
रेत घरों के ढ़हने से
आसूँ तो बहते हैं
सुख..दुःख ,हँसी ..खुशी दो पहलू
एक साथ सब सहते हैं।
लोग कहानी उनकी कहते
जो उनको भी भाते हैं
दूर रहा न जाये उनसे
जो सपनों में आते हैं।
चलती हुई हवाओं के तुम
साथ बहो पर मोडो मत।
साथ चलो ,पर दोडो मत
गिर जाओगे,
हाथ से हाथ,छोडो मत
गिर जाओगे।
कमलेश कुमार दीवान
१०अक्तुबर १९९६
नोटः यह गीत युवाओं के लिये लिखा है ,एक समूची पीढ़ी को आदर के साथ समर्पित है।
आजादी की याद मे एक गीत
आजादी की याद मे एक गीत
उन सपनो को ,कौन गिनाएँ
जो बारी से छूठ गये
ऐसा लगता कोई देवता
इन अपनो से रूठ गये।
होना दूर गरीबी को था
पर विलासता बढती क्यो
परिवर्तन की चाह मे निकली
राह सियासी लगती क्यों?
पसरा रहता घोर अँधेरा
इन बिजली के तारों से
जान न पाए पीढाओं को
बाते चाँद सितारों से।
उन अपनों को कौन मनाएँ
जो यारी से छूठ गये
ऐसा लगता कोई देवता
इन अपनो से रूठ गये ।
हमलो के बढते खतरों में
लोग अकेले रहते हैं
बीहड में डाकू, राहों पर
कई लुटेरें रहतें हैं
गजब हुए हैं दिल्ली बाले
गबई गाँव सब छूट गये।
ऐसा लगता कोई देवता
इन अपनो से रूठ गये।
कमलेश कुमार दीवान
११ जनवरी १९९८
उन सपनो को ,कौन गिनाएँ
जो बारी से छूठ गये
ऐसा लगता कोई देवता
इन अपनो से रूठ गये।
होना दूर गरीबी को था
पर विलासता बढती क्यो
परिवर्तन की चाह मे निकली
राह सियासी लगती क्यों?
पसरा रहता घोर अँधेरा
इन बिजली के तारों से
जान न पाए पीढाओं को
बाते चाँद सितारों से।
उन अपनों को कौन मनाएँ
जो यारी से छूठ गये
ऐसा लगता कोई देवता
इन अपनो से रूठ गये ।
हमलो के बढते खतरों में
लोग अकेले रहते हैं
बीहड में डाकू, राहों पर
कई लुटेरें रहतें हैं
गजब हुए हैं दिल्ली बाले
गबई गाँव सब छूट गये।
ऐसा लगता कोई देवता
इन अपनो से रूठ गये।
कमलेश कुमार दीवान
११ जनवरी १९९८
दूर कहीं नींद उड़ी जाये रे
suniye
दूर कहीं नींद उड़ी जाये रे
आओ खत लिख दें
थम गई हवाओं को
रोके कुछ देर और
श्याम सी घटाओं को
दूर कहीं नींद उड़ी जाये रे ..।
दूर कहीं नींद उड़ी जाये रे...।
मन के है पंख ,पर बहुत छोटे
आकाशी सपनो के सामने
कद कितना बौना है, तन के र्मग छौने का
पलकों का बोझ चले नापने
आओं छत ओढ लें ,भागते समय की
दूर कहीं नींद उड़ी जाये रे...।
दूर कहीँ नींद उड़ी जाये रे...।
स्वप्नो के ढेर ,सच कहाँ होंगें
भूल चले शक संवत इतिहास को
पेरौं के नीचे जमीन कहाँ
दौड़ पड़े छूने इस ऊँचें आकाश को
तानते रहें चादर ,अनसिले कमीज की
दूर कहीं नीद उड़ी जाये रे...।
दूर कहीं नींद उड़ी जाये रे....।
आओ खत लिख दें
थम गई हवाओं को
रोके कुछ देर और
श्याम सी घटाओं को
दूर कहीं नीद उड़ी जाये रे...।
दूर कहीं नींद उड़ी जाये रे...।
कमलेश कुमार दीवान
दूर कहीं नींद उड़ी जाये रे
आओ खत लिख दें
थम गई हवाओं को
रोके कुछ देर और
श्याम सी घटाओं को
दूर कहीं नींद उड़ी जाये रे ..।
दूर कहीं नींद उड़ी जाये रे...।
मन के है पंख ,पर बहुत छोटे
आकाशी सपनो के सामने
कद कितना बौना है, तन के र्मग छौने का
पलकों का बोझ चले नापने
आओं छत ओढ लें ,भागते समय की
दूर कहीं नींद उड़ी जाये रे...।
दूर कहीँ नींद उड़ी जाये रे...।
स्वप्नो के ढेर ,सच कहाँ होंगें
भूल चले शक संवत इतिहास को
पेरौं के नीचे जमीन कहाँ
दौड़ पड़े छूने इस ऊँचें आकाश को
तानते रहें चादर ,अनसिले कमीज की
दूर कहीं नीद उड़ी जाये रे...।
दूर कहीं नींद उड़ी जाये रे....।
आओ खत लिख दें
थम गई हवाओं को
रोके कुछ देर और
श्याम सी घटाओं को
दूर कहीं नीद उड़ी जाये रे...।
दूर कहीं नींद उड़ी जाये रे...।
कमलेश कुमार दीवान
गुरुवार, 5 मार्च 2009
बुधवार, 4 मार्च 2009
LOKTANTRA OIR HAM ( geet hindi)
Nit-nai naare ,nai udghosh ,nav aakanchayen
Ho nahi saktee kabhi pooree
Ye tumse kiya chipayen.
Desh kaa itanaa bada-Kanoon hai
bhookh par jiska asar -hota nahi
mulya badale daldalo ne bhi
kranti jaise - jaljalo ka
aab asar-hoga nahi
oir nukshe aajmaye
tumse kiya chipayen.
Aargani khali -tabele bujh rahen hain
chaatiyon mai uaig aaye svapn
janglo se jal rahe hai
taankar bhee -muthiyon ko kiya karenge
Dhyaj -Pataaka yen uthane mai maregne
Taaliya bhi Iss hatheli se -nahi bajati
Dhol kaise -bajayen
Tmse kiya chipayen
posted by- kamlesh kumar diwan(savrachit geet)
Ho nahi saktee kabhi pooree
Ye tumse kiya chipayen.
Desh kaa itanaa bada-Kanoon hai
bhookh par jiska asar -hota nahi
mulya badale daldalo ne bhi
kranti jaise - jaljalo ka
aab asar-hoga nahi
oir nukshe aajmaye
tumse kiya chipayen.
Aargani khali -tabele bujh rahen hain
chaatiyon mai uaig aaye svapn
janglo se jal rahe hai
taankar bhee -muthiyon ko kiya karenge
Dhyaj -Pataaka yen uthane mai maregne
Taaliya bhi Iss hatheli se -nahi bajati
Dhol kaise -bajayen
Tmse kiya chipayen
posted by- kamlesh kumar diwan(savrachit geet)
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