उगलियाँ ही उगलियौं मे गढ़ रही हैं
ऐसा क्यों?
जो लताएँ आज तक
चढ़ती थी ऊचे पेड पर
हर हरा कर टूटते
गहरे कुएँ में गिर रहीं हैं
ऐसा क्यों?
मान्यताएँ फिर हुई बूढ़ी
अन्ध विश्वासों ने बनाएँ घर
अब न मौसम बन बरसतें हैं
स्याह बादल से भयावह डर
एड़ियों पर चोटियों से जो टपकती थी कभी
बूँद श्रम की नम नयन से झर रही है
ऐसा क्यों ?
लोग कहते हैं विवशता से
दोष सारे हैं व्वस्था के
नहीं बदला रूख हवाओं ने
गर्म मौसम की अवस्था से
फिर न दोहराओ सवालो को
आग हो जाते हैं रखवारे
पीढ़ियाँ ही पीढ़ियों से चिड रही हैं
ऐसा क्यों ?
विग्य बनते हैं बहुत सारे
व्यापते हैं जब भी अंधियारे
इस लड़ाई का नहीं मकसद
हो गये हैं आज सब न्यारे
कौम, वर्ग, विकल्प और विभीषकाएँ क्या
हर नये सिध्दांत की बाते वही है
खोखली दिक् चेतना से हर शिराएँ थक गई है
ऐसा क्यों ?
कमलेश कुमार दीवान
६ जनवरी १९८८
I am writer,poet and retired principle higher secondary government school for more than 33 years. Published articles in news paper through Sarvodaya press service, Indore .Naiduniya Jansatta ,and others.my poems got published in Samkaleen Bhartiya Saahitya NewDelhi,Uttaraardh,Akshat,Kala-kalash etc.
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शुक्रवार, 20 मार्च 2009
साथ चलो, पर दोडो मत
पाश्चात्य संगीत के लिये एक गीत
suniye
साथ चलो, पर दोडो मत
साथ चलो, पर दोडो मत
गिर जाओगे ।,
हाथ से हाथ,छोडो मत
गिर जाओगे।
रेत घरों के ढ़हने से
आसूँ तो बहते हैं
सुख..दुःख ,हँसी ..खुशी दो पहलू
एक साथ सब सहते हैं।
लोग कहानी उनकी कहते
जो उनको भी भाते हैं
दूर रहा न जाये उनसे
जो सपनों में आते हैं।
चलती हुई हवाओं के तुम
साथ बहो पर मोडो मत।
साथ चलो ,पर दोडो मत
गिर जाओगे,
हाथ से हाथ,छोडो मत
गिर जाओगे।
कमलेश कुमार दीवान
१०अक्तुबर १९९६
नोटः यह गीत युवाओं के लिये लिखा है ,एक समूची पीढ़ी को आदर के साथ समर्पित है।
suniye
साथ चलो, पर दोडो मत
साथ चलो, पर दोडो मत
गिर जाओगे ।,
हाथ से हाथ,छोडो मत
गिर जाओगे।
रेत घरों के ढ़हने से
आसूँ तो बहते हैं
सुख..दुःख ,हँसी ..खुशी दो पहलू
एक साथ सब सहते हैं।
लोग कहानी उनकी कहते
जो उनको भी भाते हैं
दूर रहा न जाये उनसे
जो सपनों में आते हैं।
चलती हुई हवाओं के तुम
साथ बहो पर मोडो मत।
साथ चलो ,पर दोडो मत
गिर जाओगे,
हाथ से हाथ,छोडो मत
गिर जाओगे।
कमलेश कुमार दीवान
१०अक्तुबर १९९६
नोटः यह गीत युवाओं के लिये लिखा है ,एक समूची पीढ़ी को आदर के साथ समर्पित है।
आजादी की याद मे एक गीत
आजादी की याद मे एक गीत
उन सपनो को ,कौन गिनाएँ
जो बारी से छूठ गये
ऐसा लगता कोई देवता
इन अपनो से रूठ गये।
होना दूर गरीबी को था
पर विलासता बढती क्यो
परिवर्तन की चाह मे निकली
राह सियासी लगती क्यों?
पसरा रहता घोर अँधेरा
इन बिजली के तारों से
जान न पाए पीढाओं को
बाते चाँद सितारों से।
उन अपनों को कौन मनाएँ
जो यारी से छूठ गये
ऐसा लगता कोई देवता
इन अपनो से रूठ गये ।
हमलो के बढते खतरों में
लोग अकेले रहते हैं
बीहड में डाकू, राहों पर
कई लुटेरें रहतें हैं
गजब हुए हैं दिल्ली बाले
गबई गाँव सब छूट गये।
ऐसा लगता कोई देवता
इन अपनो से रूठ गये।
कमलेश कुमार दीवान
११ जनवरी १९९८
उन सपनो को ,कौन गिनाएँ
जो बारी से छूठ गये
ऐसा लगता कोई देवता
इन अपनो से रूठ गये।
होना दूर गरीबी को था
पर विलासता बढती क्यो
परिवर्तन की चाह मे निकली
राह सियासी लगती क्यों?
पसरा रहता घोर अँधेरा
इन बिजली के तारों से
जान न पाए पीढाओं को
बाते चाँद सितारों से।
उन अपनों को कौन मनाएँ
जो यारी से छूठ गये
ऐसा लगता कोई देवता
इन अपनो से रूठ गये ।
हमलो के बढते खतरों में
लोग अकेले रहते हैं
बीहड में डाकू, राहों पर
कई लुटेरें रहतें हैं
गजब हुए हैं दिल्ली बाले
गबई गाँव सब छूट गये।
ऐसा लगता कोई देवता
इन अपनो से रूठ गये।
कमलेश कुमार दीवान
११ जनवरी १९९८
दूर कहीं नींद उड़ी जाये रे
suniye
दूर कहीं नींद उड़ी जाये रे
आओ खत लिख दें
थम गई हवाओं को
रोके कुछ देर और
श्याम सी घटाओं को
दूर कहीं नींद उड़ी जाये रे ..।
दूर कहीं नींद उड़ी जाये रे...।
मन के है पंख ,पर बहुत छोटे
आकाशी सपनो के सामने
कद कितना बौना है, तन के र्मग छौने का
पलकों का बोझ चले नापने
आओं छत ओढ लें ,भागते समय की
दूर कहीं नींद उड़ी जाये रे...।
दूर कहीँ नींद उड़ी जाये रे...।
स्वप्नो के ढेर ,सच कहाँ होंगें
भूल चले शक संवत इतिहास को
पेरौं के नीचे जमीन कहाँ
दौड़ पड़े छूने इस ऊँचें आकाश को
तानते रहें चादर ,अनसिले कमीज की
दूर कहीं नीद उड़ी जाये रे...।
दूर कहीं नींद उड़ी जाये रे....।
आओ खत लिख दें
थम गई हवाओं को
रोके कुछ देर और
श्याम सी घटाओं को
दूर कहीं नीद उड़ी जाये रे...।
दूर कहीं नींद उड़ी जाये रे...।
कमलेश कुमार दीवान
दूर कहीं नींद उड़ी जाये रे
आओ खत लिख दें
थम गई हवाओं को
रोके कुछ देर और
श्याम सी घटाओं को
दूर कहीं नींद उड़ी जाये रे ..।
दूर कहीं नींद उड़ी जाये रे...।
मन के है पंख ,पर बहुत छोटे
आकाशी सपनो के सामने
कद कितना बौना है, तन के र्मग छौने का
पलकों का बोझ चले नापने
आओं छत ओढ लें ,भागते समय की
दूर कहीं नींद उड़ी जाये रे...।
दूर कहीँ नींद उड़ी जाये रे...।
स्वप्नो के ढेर ,सच कहाँ होंगें
भूल चले शक संवत इतिहास को
पेरौं के नीचे जमीन कहाँ
दौड़ पड़े छूने इस ऊँचें आकाश को
तानते रहें चादर ,अनसिले कमीज की
दूर कहीं नीद उड़ी जाये रे...।
दूर कहीं नींद उड़ी जाये रे....।
आओ खत लिख दें
थम गई हवाओं को
रोके कुछ देर और
श्याम सी घटाओं को
दूर कहीं नीद उड़ी जाये रे...।
दूर कहीं नींद उड़ी जाये रे...।
कमलेश कुमार दीवान