आजादी की याद मे एक गीत
उन सपनो को ,कौन गिनाएँ
जो बारी से छूठ गये
ऐसा लगता कोई देवता
इन अपनो से रूठ गये।
होना दूर गरीबी को था
पर विलासता बढती क्यो
परिवर्तन की चाह मे निकली
राह सियासी लगती क्यों?
पसरा रहता घोर अँधेरा
इन बिजली के तारों से
जान न पाए पीढाओं को
बाते चाँद सितारों से।
उन अपनों को कौन मनाएँ
जो यारी से छूठ गये
ऐसा लगता कोई देवता
इन अपनो से रूठ गये ।
हमलो के बढते खतरों में
लोग अकेले रहते हैं
बीहड में डाकू, राहों पर
कई लुटेरें रहतें हैं
गजब हुए हैं दिल्ली बाले
गबई गाँव सब छूट गये।
ऐसा लगता कोई देवता
इन अपनो से रूठ गये।
कमलेश कुमार दीवान
११ जनवरी १९९८
I am writer,poet and retired principle higher secondary government school for more than 33 years. Published articles in news paper through Sarvodaya press service, Indore .Naiduniya Jansatta ,and others.my poems got published in Samkaleen Bhartiya Saahitya NewDelhi,Uttaraardh,Akshat,Kala-kalash etc.
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मंगलवार, 7 अप्रैल 2009
अब अंधकार भी जाने कितने
suniye
अब अंधकार भी जाने कितने
अब अंधकार भी
जाने कितने स्हाय घने होंगे,
पथ धूल धूसरित और दिशाएँ
हुई नयन से ओझल ।
हम ढूँढ रहे हैं क्यों
अनंत के छोर
दुख के प्रहार अब
द्रवित नहीं करते हैँ ।
नित नई वेदनाओं
के प्रवाह मे लोग
सूखे अँतस से
क्रमिक नहीं झरते हैं ।
दिल के सुराख भी
जाने कितनें और बड़े होंगें ।
पथ धूल धूसरित और दिशाएँ
हुई नयन से ओझल
अब अँधकार भी जाने कितने
स्हाय घने होंगें ।
टुकड़ों टुकड़ों मे बटे हुये
कैसे एक देश बनाएँगें
सूखीं बगियाँ ,मरते माली
कैसे एक फूल उगायेंगें
धन लुटा,अस्मिता नग्न हुई
नोंचे जाते पथ पर सुहाग
बसते संसार भी
जानै कितनें उजड़ गये होगें
अब अँधकार भी जाने कितने
स्हाय घने होंगें
पथ धूल धूसरित और दिशाएँ
हुई नयन से ओझल ।
कमलेश कुमार दीवान
अब अंधकार भी जाने कितने
अब अंधकार भी
जाने कितने स्हाय घने होंगे,
पथ धूल धूसरित और दिशाएँ
हुई नयन से ओझल ।
हम ढूँढ रहे हैं क्यों
अनंत के छोर
दुख के प्रहार अब
द्रवित नहीं करते हैँ ।
नित नई वेदनाओं
के प्रवाह मे लोग
सूखे अँतस से
क्रमिक नहीं झरते हैं ।
दिल के सुराख भी
जाने कितनें और बड़े होंगें ।
पथ धूल धूसरित और दिशाएँ
हुई नयन से ओझल
अब अँधकार भी जाने कितने
स्हाय घने होंगें ।
टुकड़ों टुकड़ों मे बटे हुये
कैसे एक देश बनाएँगें
सूखीं बगियाँ ,मरते माली
कैसे एक फूल उगायेंगें
धन लुटा,अस्मिता नग्न हुई
नोंचे जाते पथ पर सुहाग
बसते संसार भी
जानै कितनें उजड़ गये होगें
अब अँधकार भी जाने कितने
स्हाय घने होंगें
पथ धूल धूसरित और दिशाएँ
हुई नयन से ओझल ।
कमलेश कुमार दीवान