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बुधवार, 23 मार्च 2011

ऐसे फागुन आये




  ऐसे फागुन आये

ओ भाई ,ऐसे फागुन आऍ ।
जो न गाऍ गीत,गऐ हो रीत
खूब  बतियाऍ
ओ भाई ,ऐसे फागुन आऍ।
दरक गई है प्रीत परस्पर
ढूढै मिले न मन के मीत
हारे हुये ,समय के संग संग
कहां मिली है सबको जीत।
दुख सुख साथ साथ चलते हैं
हम सबको ललचाऍ
ओ भाई ,ऐसे फागुन आऍ।

नये सृजन हों, नव आशाऍ
नये रंग हों नव आभाऍ
नया समय है ,नव विचार से
पा जाये हम नई दिशाये
कोई न छूटे सँगी साथी
साथ साथ चल पाये ..
ओ भाई ,ऐसे फागुन आऍ।
                
        कमलेश कुमार दीवान
              १० मार्च ०९

    

बुधवार, 16 मार्च 2011

होली के रंग


होली के रंग

होली के रंग छाँयेगे
कोई न हो उदास ।
मौसम ही सब समायेगे
कोई न हो उदास ।

नदियाँ ही रँग लाई हैं
तितली के पँखों से
ध्वनियाँ मधुर सुनाई दें
पूजा के शँखो से
पँछी भी चहचहायेगे
आ जाये आस पास ।
होली के रँग छायेगे
कोई न हो उदास ।

पुरवाईयो ने बाग बाग
पात   झराये
बागो से उड़ी खुशबूओं ने
भँबरे   बुलाये
अमिया हुई सुनहरी
मौसम का  है अंदाज ।
बोली के ढँग आयेगें
कोई न हो उदास ।
होली के रँग छाँयेगे
कोई न हो उदास ।

कमलेश कुमार दीवान
26/02/10

रविवार, 6 मार्च 2011

मै जानता हूँ यह बजट नहीं है


मै जानता हूँ यह बजट नहीं है

मै जानता  हुँ,तुम जरूर आओगे
अपनी बगल मे दबाए कुछ दस्तावेजो के साथ
लगभग दर्जन भर कटौतियाँ होंगी और
एक -आद कल्याणकारी योजना
सौ पचास पाँच सौ हजार के नये नोट छापने और
एक आद अंको के सिक्के आयात करने की घोषणाओ के साथ
सब कुछ मिलेनियम होगा पर........
शायद कटे फटे टुकड़ों मे मुड़े तुड़े नोट खूब चलैगें
ढेर सारी रियायतें ,सपनों को पूरा करने की कवायदें हो्गी पर
शायद नहीं होंगी गूँजाइश उन पैबँदों के लिये
जिन्हे आबादी अपनी कमीज पर चिपकाकर तन ढँक सके।
कूछ मेजें हैं जो थपथपायी जाती रही है ..आजादी के बाद से
कुछ कोने हैं जहाँ से शर्म शर्म के नारे गूँजते हैं ...आजादी के बाद से
तुम्ही बताओं इस देश ने
बच्चों के आँगन कहाँ छिपा लिये है
युवाओं के सपने किसकी आँखों मे भर दिये है
सुनो दहकते पलाश के रंगों की आभाएँ
फैल रही है जुआघर मे तब्दील हो चुके शेयर बाजारों मे
सटोरियों,दलालो नव दौलतियों की कोठियाँ
उद्योगपतियों के शाही उद्यान
बड़ी कम्पनियों के कारोबारी परिसर
सब कुछ विराट हुये है मुगल गार्डन से   पर
शायद आम आदमी के पास अब बसंत नही है
फिर भी तुम जरूर आओगे बसंत
इस जाती हूई बहार मे खुशगबार कुछ नही होता है
एक आद खिलखिलाते हैं,सारा जंगल रोता है
मै जानता हूँ ये बसंत
ये कागज हैं कोई मौसम नहीं हैं
यहाँ सब कुछ जो दिखाई दे रहा है
वह बजट नही है ।
                                             कमलेश कुमार दीवान
                                         28/02/2000