बहुत मदहोश हैं बादल ,न जाने क्या जमीं का हो
हवा में ताप भी ज्यादा न जाने क्या जमीं का हो
सूरज से बरसती हो तपन ,धरा से आग उठती हो
मौसम भी सितमगर है,न जाने क्या जमीं का हो
सागर की सतह से बहुत ऊँची उठ रही लहरें
तटों पर टूटती हैं तब ,न जाने क्या जमीं का हो
खिसकते बर्फ के हिस्से और ढहते शीर्ष पर्वत के
नदी में आ रहा मलबा न जाने क्या जमीं का हो
थिरकती सी हवाएँ दे रही तूफानों की आहट
उठेंगे जब बबंडर तब ,न जाने क्या जमी का हो
कमलेश कुमार दीवान
11/7/21
*यह रचना मौसम के वर्तमान हालत और जमीन पर उसके प्रभाव के संबंध में है
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा 16.09.2021 को चर्चा मंच पर होगी।
जवाब देंहटाएंआप भी सादर आमंत्रित है।
धन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
वाह
जवाब देंहटाएंउम्दा ग़ज़ल!
जवाब देंहटाएंहर शेर लाजवाब।