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सोमवार, 9 जनवरी 2012


इन्हे नहीं होना चाहिये था
                               
          कमलेश कुमार दीवान

हम सोचते रह जाते हैं
क्या क्या होने और कुछ भी नहीं रहने के बीच से
गुणा भाग कर रास्ते बनाते बनाते
सन्नाटो और वियावानों मे खेत रह जाते हैं।
मेरी समझ से इन्हे होना ही चाहिये था ....
बच्चो और माओं को ताई और धायों को
किस्सो कहानियों को राजा और रानियों को
परियों राजकुमार राक्षस के त्रिकोण बनाती बूढ़ी बाईयों को
यदि इन सबसे अलहदा भुआ,संसार के चित्र
बचपन मे ही नहीं दे जाती
तब गुड्डे गुड़ियो मे सिमट आई बड़ी दुनियाँ
सपनो मे भी जरा सी रह जाती ।
पगडंडियो ,कच्चे पक्के मार्गो,कारबाँ पथों को
ऊबड़ खाबड़ पहाड़ ,घाटियों मैदानो घौड़ा जुते रथो को
होना ही चाहिये था ,
पछुआ पुरवाई के साथ पालदार नौकाओं को
मेगलन,बेसपुक्की,कोलम्बस की शानदार यात्राओं को
होना ही चाहिये था ।
हमने जब जब भी रेगिस्तानो को पार कर आबादी बढ़ाई है
सागर को नापकर ,आसमान तक मे अपनी चक्करघिन्नी लगाई है
दुनिया और बड़ी होती गई है ,
नील,दजला.फरात,मीनाँग मीकाँग
सिन्धु गंगा,ह्वाँगहो यांगतीसीक्याँग आदि नदियाँ
मानव सभ्यताओं के पालने नहीं रह गई है
तकनीकी के जादू और बारूदी उगलियों पर नाचती इतराती दुनियाँ
आज भी बची रह सकती है बस
साम्राज्य बनाने ,फैलाने उन्हे बचाये रखने के सपने न हों
बहुत कुछ है ढिर भी
पिता की ऊगलियों को छोड़कर
रास्तो से दौड़ पड़ते बच्चो के लिये गुजाइश नहीं है
कि बह काधों से उतर समा सके
जानी पहचानी गोद मे,
उफ ये भीड़ भरी सड़कें ,पालदार नौकाएँ
ये कारबाँ मार्ग,नक्शे और दिशायें
बाहर का रास्ता दिखाती पगडंडियाँ ,
आदमी को
घनी बसी आबादियो के जंगल मे ले जाती है ,
इन्हे नहीं होना चाहिये था ।

                             कमलेश कुमार दीवान
                               जनवरी 1997