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शनिवार, 24 अगस्त 2024

बेटियों..... एक नज़्म कमलेश कुमार दीवान

                    " बेटियों "....... नज़्म 

          ‌‌                  कमलेश कुमार दीवान 

मुझे वो दृष्टि दो जिससे निहारूं आज़ की दुनिया 

जो कल देखा वो गुजरा है,अब देखा तो एक डर सा है 

कसकर उंगलियां थामो भींचकर फिर मुट्ठियों तानो 

उठो सब बातों से उपर जो कहता हूं वह न मानो 

भरती सांस भी बर्दाश्त करना अब हुआ मुश्किल 

हौंसले  पर कतरने को खड़ी दुनियां बहुत तंगदिल 

निहारों और रंग समझो  बने- ठने आसमानों का 

पूरे हों जज़्बात ये सपने ढेर भी तो है अरमानों का 

वो सृष्टि है कहां  जहां की भोर सूरज ओस मोती हों 

हवाएं मंद और चहचहाहट पंछियों की भी होती हों 

नदी कल कल करें कुछ गुनगुनाती आगे बढ़ती हो 

धरती पर उगी लता बेले लिपट शाखें पेड़ चढ़ती हों 

खिले हों फूल हर डाली फल लदी डालें झुकी सी हो 

निहारूं खेत फिर वैसे कि जैसे गीत गातीं हों फसलें 

घरों को देखूं तो लगे कि सदी तक रहेंगी  यही नस्लें 

ढोल थापों पे थिरकते नाचते खुशियां मनाते लोग भी तो हैं

आज़ इस व्यापार ने दुनिया को बाजार में तब्दील किया है 

यहां हर आदमी जीता है,और ज्यादा मर मर के जिया है 

कमलेश कुमार दीवान 

19/8/24


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