रहे हैं लोग ... ग़ज़ल
कमलेश कुमार दीवान
जिन सीढ़ियों से चढ़ते उतरते रहे हैं लोग
उन्ही सीढ़ियों से लुढ़कते गिरते रहे हैं लोग
सुनते रहे हैं ज़श्न मनाने की तालियां सभी
नीचे गिरे तो गिर के सिहरते रहें हैं लोग
खुशियों से भरें दिखते हैं दुःख भोगते हुए
खुद को ही भूलकर यूं उबरते रहें हैं लोग
ऊंचाई पर भी और भी उठने की हसरतें
घायल हुए हैं ज़ख्म को भरते रहें हैं लोग
कुछ देर और देखो तमाशा भी ये 'दीवान'
चलने से ज्यादा अब तो ठहरते रहे हैं लोग
कमलेश कुमार दीवान
5/3/25
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