सांझ आई है
* कमलेश कुमार दीवान
सांझ आई है अब आएगी नहीं रातों में नींद
शेष यादों के सफर खुरापात करें सुबह तलक
कभी आती है पिता की यादें,ठहर से जाते हैं मां के जज्बात
रूठते झगड़ते हुए भाई बहनों के साथ
भूली भी नहीं जाती है गांव गलियों की बरसात
अपनों के खेत ,चारागाह ,नदी,पोखर तालाब
शीत रातें और दालानों में जलते थे आलाव
न मस्जिद थी,न मंदिर थे,न ही गिरजाघर
फिर भी घरों घर बाँची जाती थी किताब
जलते थे चूल्हे सिकती थी रोटियां सबकी
हम सही होते थे सुरक्षित थी बेटियां सबकी
आज हालात बदलते देखे ,लोग मुंह फेरकर चलते देखे
लोक में मत भिन्न थे सैलाव भी पलते देखे
दिन निकल जायेगा अच्छे से भोर होने के बाद
रात सरेराह झगडो में उलझते देखे
कहां सुकूं हैं अरमान स्वप्न सारे जहां
सबने शव द्फ़्न और जलते देखे
बंद हो जाए रहनुमांई अब
बनती बारूद गोलियां और बम
बदल जाएगी दुनिया सारी
और थोडा सुकून पाएंगे हम
न वोट मांगें न हुंजूमों की तरफदारी हो
किसी से दुश्मनी न हो सभी से यारी हो
चलो बनाएं एक देश ऐसा भी हम
जहाँ की सुबह और शाम रात प्यारी हो
सभी हों पर किसी का नाम न हो
प्रार्थनाओं में उठे सभी के हाथ न दुश्वारी हो
सांझ आये तो आये सुकून, नींद और ख्वाब
शेष यांदो के सफ़र सुबह तक जारी ही रहे ।
कमलेश कुमार दीवान
28/11/2020
सुन्दर सृजन।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद जोशी जी
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