ख्वाब की ताबीर में
कमलेश कुमार दीवान
अपने एक ख्बाव की ताबीर में ऐसा ही हुआ
चाहा था चांद को आफताब भी वैसा ही हुआ
धूप और छांव का कोई फ़र्क नहीं लगता है
दिन कायनात में भी चांदनी जैसा ही हुआ
हवाएं थी कि हम उसको पकड़ के चलते रहे
नदी में पांव रख्खे उड़ने का अंदेशा ही हुआ
फूल कांटों से चुभे झाड़ पेड़ आसमान में थे
खेत घर बार महकते थे ये सब कैसा ही हुआ
हम भी क्या क्या सोचते रहते हैं यहां 'दीवान'
पानी जला आग महक उठी तमाशा ही हुआ
कमलेश कुमार दीवान
7/11/25
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